Wednesday, October 19, 2011

Hindi Short Story Yatna Ki Ek Rat By M.Mubin


कहानी  यातना की एक रात लेखक  एम मुबीन   

पत्नी के बुरी तरह झकझोरते पर आंख खुली. वही हुआ जो आमतौर पर इस तरह अचानक जागरूक किए जाने पर होता है. हृदय की धडकनें तेज हो गईं. साँसें अपनी पूरी गति से चलने लगीं और भाषा रेत का रेगिस्तान और गले में कानों का जंगल उभर आया.
"क्या है?" बड़ी मुश्किल से होंटों से आवाज़ निकली और अपने होंटों पर जीभ फेरकर भाषा तर करने की कोशिश करने लगा.
"बाहर पुलिस आई है." पत्नी कलेजा पकड़ कर बोली.
"पुलिस?" उसके माथे पर बल पड़ गए. "इतनी रात गए इस इलाके में पुलिस का क्या काम?"
"सायरन की आवाज़ सुनकर आंख खुल गई. फिर सन्नाटे में ऐसा लगा जैसे कई वाहन आकर रुकी. और फिर भारी भरकम बोों की आवाज़ गली में गूंज लगी." पत्नी बताने लगी. "फिर वातावरण में वही पुलिस के पारंपरिक प्रश्न गरजने लगे.
"दरवाज़ा खोलो, कौन हो तुम कहाँ से आए हो और कितने दिनों से यहां रह रहे हो." अब पत्नी की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि फिर गली में भारी भरकम क़दमों की आवाज़ गूंज और दरवाजा खटखटाया जाने लगा. उसकादिल धड़क उठा. वह डर नज़रों से दरवाजे की ओर देखने लगा. परंतु जब फिर दरवाजा खटखटाया गया तो अंदाज़ा हुआ उनका नहीं पड़ोसी का दरवाजा खटखटाया जा रहा है.
"दरवाज़ा खोलो वरना हम दरवाजा तोड़ देंगे." एक तेज़ आवाज़ गूंज और उसके बाद दरवाज़ा खुलने और फिर पड़ोसी की घबराई हुई आवाज़.
"क्या बात है, कौन है?"
"दिखाई नहीं देता, हम पुलिस वाले हैं."
"पुलिस?" सिद्दीकी साहब घबराए हुए थे. "क्या बात है इन्‍सपेक्‍टर  साहब! इतनी रात आप मेरे घर आने की ज़हमत क्यों की?"
"हमें तुम्हारे घर की तलाशी लेनी है."
"तलाशी और मेरे घर की, मगर क्यों?"
"हमें तुम्हारे घर की तलाशी लेनी है."
"परंतु मेरे घर की तलाशी क्यों ली जा रही है?"
"केवल तुम्हारी ही नहीं, पूरे क्षेत्र के हर घर की तलाशी की जा रही है और हमारे इस मिशन का नाम है कोम्बनग ऑपरेशन."
"परंतु हमारे इस क्षेत्र में आपको कोम्बनग करने की जरूरत क्यों पेश आया है?"
"इसलिए कि हमें पता चला है कि इस क्षेत्र में अवैध काम होते हैं. और यह क्षेत्र अपराधियों की आमास्थाह है. इस पूरे क्षेत्र में बांग्लादेशी और आई. एस. आई एजेंट फैले और छिपे हुए हैं."
"परंतु हमारा इन सभी बातों से कोई संबंध नहीं है हम नौकरी पेशा शरीफ लोग हैं?"
"शरीफ़ लोग हैं, नौकरी पेशा लोग हैं और झोपडपटटी में रहते हो?"
"शरीफ़ और नौकरी पेशा लोगों का झोपडपटटी में रहना कोई अपराध तो नहीं है."
"हे! अधिक बुक बुक मत कर हम अपना काम करने दे. हमें कानून मत सिखा, क्या? अधिक होशियारी की तो उठाकर पटख दूंगा साला स्‍वंय  को सज्जन बताता है. प्रथम! उसके घर की अच्छी तरह से तलाशी लो. अगर कोई भी चीज़ मिले तो उसे बताना कि सज्जनता क्या है? पुलिस के कामों में टांग अड़ाती है. इसके बाद सिद्दीकी साहब की आवाज़ नहीं सुनाई दी परंतु घर के एक सामान को उलट पलट करने, गिराने और फेंके की आवाज़ें ज़रूर पॉप लगीं.
"साहब देखिए कितना बड़ा छरा है."
"यह मांस काटने का छरा है." सिद्दीकी साहब की आवाज़ उभरी.
"यह मांस काटने का छरा या मर्डर करने का अभी पता हो जाएगा. हवलदार उसे हथकड़ी डाल कर ले चलो." इंस्पेक्टर की आवाज़ उभरी. "नहीं नहीं!" सिद्दीकी साहब की पत्नी की आवाज़ उभरी. "मेरे पति को कहाँ ले जा रहे हो, नहीं मैं अपने पति को बिना किसी कारण तुम्हें घर से ले जाने नहीं दूंगी. "
"हे बाई! दलों सरक, हमारे काम में दखल देने की कोशिश मत कर वरना बहुत भारी पड़ेगा." एक गरजदार आवाज़ उभरी.
"इन्‍सपेक्‍टर  साहब मैं सच कहता हूँ आप को गलतफहमी हो रही है. एक शरीफ नौकरी पेशा आदमी हूं." सिद्दीकी साहब की आवाज़ उभरी.
"साब बंगाली किताबें." एक आवाज़ उभरी.
"यह देखिए! कई बंगाली किताबें हैं."
"तो यह आदमी जरूर बांग्लादेशी होगा."
"बांग्लादेश में भारतीय हूं."
"यदि भारतीय हो तो फिर यह बंगला भाषा की किताबें तुम्हारे पास कहाँ से आईं?"
"मुझे बांग्लादेश साहित्य में रुचि है. इसलिए बंगला भाषा की किताबें पढ़ता हूं."
"वह सब पुलिस स्टेशन में साबित करना कि तुम बांग्लादेशी हो या भारतीय." इसके बाद सिद्दीकी साहब को शायद धक्के देकर कमरे से बाहर ले जाया गया. उनकी पत्नी की दाद फ़रियाद की आवाज़ें, डानों और गालयों के शोर में दब रह गई थीं. इसके बाद उनकी बारी थी दरवाज़ा ज़ोर से पीटा जाने लगा.
"कौन?" धड़क दिल थाम कर बड़ी मुश्किल से वह कह सका.
"पुलिस! दरवाजा खोलो. हम तुम्हारे घर की तलाशी लेना चाहते हैं." बाहर एक गरजदार आवाज़ उभरी. उसने बिना कोई पसो पेश के द्वार खोल दिया. सात आठ पुलिस के सिपाही और एक इंस्पेक्टर धड़धड़ाते हुए कमरे में घुस आए और तेज नज़रों से कमरे की एक एक वस्‍तु  की समीक्षा लगे. इसके बाद वह बड़ी तेजी से कमरे के एक कोने की ओर लपके और वहां की चीज़ें और सामान बड़ी बे दरदी नीचे ऊपर और पटखनी लगे. पत्नी डर से थर थरकांप उसके सीने से आ लगी.
"क्या नाम है तुम्हारा?" इंस्पेक्टर ने कड़क कर पूछा.
"रहस्य अहमद."
"पता है. जगह रहस्यमय अहमद नहीं तो क्या सचिन खेडीकर रहेगा. क्या काम करते हो?"
"एक सरकारी कार्यालय में नौकरी करता हूँ."
"सरकारी कार्यालय में नौकरी करते हो." इन्‍सपेक्‍टर  आश्चर्य से उसे देखने लगा.
"और यहाँ रहते हो?" "साब ज़रूर इस संबंध आईएसआई से है. ये लोग सरकारी कार्यालयों में काम करते हैं और देश से गद्दारी करते हुए जासूसी करते हैं देश के राज़ बेचते हैं." ऐसा लगा जैसे शरीर सारी शक्ति दाहिने हाथ में जमा हो गई है. और वह हाथ मक्का के रूप में हवलदार के मुँह पर पड़ने के लिए बेताब है. उसने बड़ी मुश्किल से स्‍वंय  पर काबू पाया और आगे बढ़कर अपनी पैंट की जेब से अपने कार्यालय का कार्ड निकाला और इंस्पेक्टर की ओर बढ़ा दिया.
"ओह! तो मंत्रालय में हो?" इंस्पेक्टर ने कार्ड देखते हुए कहा. "ठीक है हम अपना काम कर लिया है. प्रथम! चलो बाहर निकलवा." उसने दूसरे सिपाहियों को आदेश दिया और सब कमरे से बाहर निकल गए. सारा घर कबाड़ा गृह बन गया था. वह और पत्नी विवश्‍ता  से अपने घर के बेतरतीब सामान को देखने लगे फिर पत्नी एक सामान को उठाकर अपनी जगह रखने लगी. उसके बाद उनके पड़ोस के कमरे पर हमला हुआ था. असग़र नशे में धुत था. पैदा करने पर वह पुलिस से उलझ गया. "साला! तुम पुलिस वाले अपने आपको क्या ख़ुदा समझते हो. कभी शरीफ लोगों के घरों में भी धड़क घुस आते हो. उनकी मीठी नींद खराब करते हो. चले जाओ नहीं तो एक एक को देख लूँगा. "
"साले अधिक चर्बी चढ़ गई है शायद, ठहर जा! अब तेरी चर्बी उतारते हैं." और उसके बाद डंडों के बरसने की आवाज़ें और असग़र की चीखें वातावरण में गूंज लगीं. "बचाव! बचाव! नहीं! नहीं! मुझे मत मारो. "इस की चीजों में उसके घर वालों, पत्नी और बच्चों की चीखें भी शामिल थीं. इसके बाद असग़र को खींचते हुए बाहर ले जाया गया था. इस प्रकोप  का सिलसिला चाल के दूसरे कमरों पर तारी रहा.
"या खुदा! हम लोगों का यह हाल है तो बस्ती के दूसरे लोगों का क्या हाल होगा." बड़बड़ाते हुए उसने सोचा. वह बस्ती झनपड़ पट्टी ज़रूर थी परंतु इतनी बदनाम नहीं थी. जितनी आम तौर पर दूसरी झनपड़ पट्टियाँ हैं.वहां इक्का दुक्का अपराध होते थे और वहां अपराधियों की संख्या बहुत कम थी. इस बस्ती के बीच में एक छोटी सी चाल थी. आठ दस कमरों पे शामिल. पहले वह बस्ती नहीं थी केवल वही चाल थी. जहां उसके जैसे नौकरी व्यावसायिक आकर बस गए थे. जो अपनी साख के अनुसार शहर के पाश इलाके में घर, मकान लेने में असमर्थ थे. अपने पास जमा छोटी सी राशि डपाज़ट के रूप में देने के बाद उन्हें उसी चाल में कमरा मिला था. इसके बाद जीवन भर की कमाई पेट की आग, जीवन की समस्याओं, बच्चों की परवरिश और शिक्षा की भेंट हो गई थी. इस चाल से बाहर निकलने का मौका ही नहीं मिला. और चाल के आसपास मशरूम की तरह झोपडपटटी बढ़ती और बस्ती गई. झोपडपटटी उनकी तरह अच्छे शरीफ और संकट  के मारे लोग भी थे. जो सिर छिपाने के लिए वहां बसे हुए थे तो सर फिरे, जाहिल, उजड़ और गनवार भी थे. ऐसे लोगों को इस तरह के प्रकोप  भी सहने पड़ते हैं.
"रहस्य भाई रहस्यमय भाई! कुछ करें, पुलिस उन्हें ज़बरदस्ती पकड़ कर ले गई है." सिद्दीकी साहब की पत्नी रोती हुई उसके पास आई.
"आप धैर्य  रखें भाबी! कुछ नहीं होगा मैं देखता हूँ." उसने सिद्दीकी साहब की पत्नी को सांत्वना दी और फिर पत्नी से बोला. "शकीलह! तुम अपना ख्याल रखना मैं अभी आया.
"आप कहाँ जा रहे हैं? मुझे बहुत डर लग रहा है." पत्नी बोली.
"डरने की कोई बात नहीं है. तुम सिद्दीकी साहब के घर चली जाओ." यह कहकर बाहर आया तो शायद प्रकोप  समाप्‍त  हो चुका था. पुलिस की वाहन जा चुकी थीं. चाल और आसपास के क्षेत्र के दस बारह लोगों को गिरफ्तार कर पुलिस स्टेशन ले जाया जा चुका था. जो बच गए थे आपस में सलाह कर रहे थे जिन्हें पुलिस पकड़ कर ले गई है, उन्हें कैसे वापस लाया जाए. असग़र तो शराब के नशे में धुत था और अकारण पुलिस से उलझ गया था उसे तो पुलिस छोड़ने से रही. उनके लिए इसका नशा में होना ही काफी था. परंतु सिद्दीकी साहब को ख्वामख्वाह पुलिस स्टेशन ले जाया गया. उनकी पत्नी की हालत गैर है. वह मेरे पैरों पर गिर कर विनती कर रही थी कि सिद्दीकी साहब को वापस लाया जाए. पड़ोसी एक जगह जमा होकर बातें कर रहे थे. "ठीक है! चलो पुलिस स्टेशन चलकर देखते हैं और इंस्पेक्टर को समझाने की कोशिश करते हैं कि सिद्दीकी साहब सज्जन हैं. उनका संबंध ऐसे किसी आदमी से नहीं है. जिसकी खोज में उन्होंने यह प्रकोप  इस बस्ती पर डखाया था. वह बोला तो सब उसके साथ पुलिस स्टेशन जाने के लिए राजी हो गए.
पुलिस स्टेशन में लोगों की भीड़ थी. कुछ तो लोग थे जो इस ऑपरेशन के तहत पकड़ कर लाए गए थे. कुछ उन्हें छुड़ाने के लिए आए थे. पुलिस बड़ी सख्ती से पेश आ रही थी. किसी को पुलिस स्टेशन में कदम रखने की अनुमति नहीं थी. "जाओ सवेरे आना. सवेरे तक यह लोग यहां रहेंगे. सवेरे उनके बारे में सोचेंगे कि उनका क्या होगा." उसने अपना कार्ड बताया तो उसे अन्दर जाने की अनुमति दी गई. उसने इंस्पेक्टर से सिद्दीकी साहब के बारे में बात की.
"इन्‍सपेक्‍टर  साहब! सिद्दीकी साहब को पिछले दस सालों से जानता हूं. उनका संबंध अपराधियों, आतंक  या देश दुश्मन लोगों से नहीं है. वह एक शरीफ़ नौकरी पेशा आदमी हैं और एक निजी फर्म में अकाउंट नट हैं."
"क्या बात करते हो रहस्यमय साहब उनके घर हमें छरा और बांग्लादेश किताबें मिली हैं. पूरा जांच के बाद ही उन्हें छोड़ सकते हैं." इन्‍सपेक्‍टर  ने साफ कह दिया.
"रहस्य भाई! मुझे यहाँ से किसी तरह ले चलो अगर मैं सवेरे तक यहां रह गया तो यहाँ मेरी जान निकल जाएगी, वहां मेरी पत्नी की. अपने मालिक का फोन नंबर देता हूँ उनसे इस सिलसिले में बात कर लीजिए." कहतेउन्होंने एक फोन नंबर दिया तो वह उसे लेकर बाहर आया और एक सार्वजनिक टेलीफोन बूथ से इस नंबर पर फोन लगाने की कोशिश करने लगा.
"हैलो!" तीन चार बार कोशिश करने पर नींद में डूबी आवाज़ उभरी.
"मलहोतरह साहब सिद्दीकी साहब आपकी ऑफिस में काम करते हैं. उनका पड़ोसी बोल रहा हूँ. उन्हें ऑपरेशन कोम्बनग के दौरान पुलिस पकड़ कर ले गई है और उन पर बांग्लादेशी, अपराधियों और देश दुश्मन होने का शक कर रही है. आप पुलिस स्टेशन फोन करके सिद्दीकी साहब के बारे में कुछ कह दें तो हमें सिद्दीकी साहब को छुड़ाने में मदद मिलेगी. "
"सिद्दीकी साहब और बांग्लादेश, अपराधियों और देश दुश्मन? ना न सनस. उन लोगों ने तो शरीफ लोगों का जीना मुश्किल कर रखा है. भई मेरे फोन से कुछ नहीं होगा. मेरा एक दोस्त गृह मंत्रालय में काम करता है. इस से फोन करवाता हूं तब ही कुछ काम बनेगा. "
"आप फोन जरूर करवाई. वरना सिद्दीकी साहब को रात भर ...!"
"तुम चिंता मत करो सिद्दीकी मुझे बहुत प्रिय है." मलहोतरह साहब ने उसकी बात काटकर कहा और फोन बंद कर दिया. वह पुलिस स्टेशन आया और सिद्दीकी साहब को तसल्ली देने लगा. कि मलहोतरह साहब गृह मंत्रालय के किसी आदमी से फोन करने हैं और पुलिस उन्हें छोड़ देगी. पुलिस स्टेशन में हाथों, गालयों और लातों से एक आदमी की बल्लेबाज परस जारी थी. समय चयून्टी गति से रेंग रहा था. अचानक टेलीफोन की घंटी बजी तो इंस्पेक्टर ने फोन उठाया.
"कोली वाड़ह पुलिस स्टेशन में इंस्पेक्टर साने. अच्छा साहब अच्छा साहब. वह बस यूं ही शक के आधार पर पूछताछ के लिए यहां लाए हैं. छोड़ रहे हैं." फोन रखकर वह क्रोध भरी दृष्टि से सामने बैठे लोगों को घूरने लगा . "सिद्दीकी कौन है?"
"मैं हूँ." सिद्दीकी साहब ने डरते डरते कहा. 'तो पहले साफ साफ क्यों नहीं बताया कि वाई कर साहब को पहचानते हो? जाओ अपने घर जाओ. "
सब जब सिद्दीकी साहब के साथ पुलिस स्टेशन से बाहर आए तो पौ फट रही थी और ऐसा लग रहा था जैसे प्रकोप  की एक रात समाप्‍त  हो गई है.
 
...
अप्रकाशित
मौलिक
------------------------समाप्‍त--------------------------------पता
एम मुबीन
303 क्‍लासिक प्‍लाजा़, तीन बत्‍ती
भिवंडी 421 302
जि ठाणे महा
मोबाईल  09322338918

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